खाद्य मंत्री के प्रभार वाले जिले में ही आदिवासियों के पेट तक नहीं पहुंच रहा राशन


चंद रुपयों के लिए गिरवी रखना पड़ता है राशन कार्ड
पूरे जिले में हजारों राशनकार्ड रखे हैं गिरबी

शिवपुरी 
खाद्य मंत्री के प्रभार वाले क्षेत्र में खाद्य प्राप्ति का जरिया कहे जाने वाले गरीब आदिवासियों के राशन कार्ड दबंगों के यहाँ गिरबी रखे हुए हैं। गरीब आदिवासी महिलाओं ने ये राशनकार्ड किसी बड़े लालच के वशीभूत नहीं बल्कि अपने बच्चों की बीमारियों के इलाज के लिए रखे हैं। 
चार खाली बर्तन, उल्टी पड़ी कड़ाही, बुझा हुआ मिट्टी का चूल्हा और तीन भूखे बच्चे जमना की रसोई में बस यही था। घर में दो दिनों से कुछ नहीं बना था, दो दिन पहले भी महज एक वक्त सिर्फ रोटियां ही खाईं थीं। बारबार खाना मांगते बच्चों को डपटकर भगाने के बाद जमना कहती हैं, बच्चे कभी रोटी मांगते हैं, कभी पूरी मांगते हैं, कभी कहते हैं पराठे बना दे, तेल होए, सामान होए तो कुछ बनाऊं कुछ नहीं है। यह दास्ता अकेले जमना के घर की नहीं है बल्कि शिवपुरी जिले में ऐसे हजारों परिवार हैं जो अंत्योदयकार्ड धारी तो हैं और राशन इनके हाथ में तो आता है मगर पेट तक नहीं पहुंच पाता। कारण छोटी छोटी बीमारियों और जरूरतों के चलते इनके द्वारा अपनी ही रोटी का जरिया राशनकार्ड योजनाबद्ध तरीके से हर गाँव में दबंगों एवं साहूकारों के एक रैकिट ने हड़प लिए गए हैं। 
यह सब प्रदेश के उस जिले में हो रहा है यहाँ के प्रभारी प्रदेश के ही खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री प्रद्युम्र सिंह तोमर हैं। सरकार तो बदल गई मगर इन आदिवासियों की किस्मत कब बदलेगी यह बड़ा सवाल अभी भी हवा में तैर रहा है। राशन कार्ड हड़पने का यह कुत्सित कारोबार एक गाँव में नहीं बल्कि हर सहरिया बस्ती में चल रहा है और इस काले धंधे से आदिवासियों के हक का करोड़ों का राशन माफिया डकार रहे हैं और आदिवासी परिवार कुपोषण और भुखमरी से लगातार मौत के शिकार हो रहे हैं।
बात करें मझेरा की निवासी जमना की तो तो उसका राशन कार्ड गिरवी रखा है और घर के ऐसे हालात तब हैं जब उनके पास अंत्योदय राशन कार्ड है, जो गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को जारी किया जाता है। इस राशन कार्ड से जमना को एक रुपए किलो के हिसाब से गेहूं और चावल मिल सकता है, साथ ही वो मिट्टी का तेल और दूसरे सामान भी राशन की दुकान से खरीद सकती हैं।
यहां चंद रुपयों के लिए गिरवी रखना पड़ता है राशन कार्ड
लेकिन वो ये सामान नहीं ले पा रहीं क्योंकि उन्होंने अपना राशन कार्ड डेढ़ साल पहले गांव के ही एक शख्स के पास गिरवी रख दिया था, इसी शख्स के पास गांव के और भी कई परिवारों के अंत्योदय राशन कार्ड गिरवी पड़े हैं।
ये कहानी सिर्फ जमना या मझेरा गांव की नहीं हैए बल्कि मध्य प्रदेश के शिवपुरी के 300 से ज़्यादा सहरिया आदिवासी बहुल गांवों में राशन कार्ड गिरवी रखने की एक व्यवस्था सी बन चुकी है। 
इन आदिवासियों पर राशन कार्ड के अलावा कुछ और गिरवी रखने के लिए है ही नहीं किसी गऱीब परिवार के लिए दो वक्त की रोटी मुहैया कराने वाले राशन कार्ड से ज़रूरी और कीमती चीज क्या हो सकती है, लेकिन फिर भी आखिर क्या वजह है कि यहां के लोग अपना राशन कार्ड गिरवी रख देते हैं।
मोहनदे बाई कहती हैं कि मेरो मौड़ा, बच्ची बहुत बीमार थे उल्टी-दस्त लगे थे, इलाज के लिए पैसों की ज़रूरत थी, पैसा-धेला है नहीं, कहां से इलाज करा लेते। मजबूरी में राशन कार्ड गिरवी रखाण् और कोई चारा ही नहीं था।
ठीक इसी वजह से जमना ने भी अपने डेढ़ साल के बच्चे के लिए कर्ज लिया था, उनके बच्चे को सूखा रोग हुआ था लेकिन, इलाज के बाद ना तो जमना की बच्ची बच सकी और ना ही मोहन कुमार की और ना ही वो अब तक अपना राशन कार्ड छुड़ाने के लिए पैसे का इंतज़ाम कर पाईं।
रामश्री का बेटा भी बीमारी के बाद चल वसा वो कहती हैं जिसके लिए कर्ज लिया वो ही मौड़ा न बचा और राशन कार्ड भी चला गया। इतना कहते ही रामश्री रो पड़ती है।
इस मां के आसूं अपने एक बच्चे को खोने और दूसरे को रोज भूखा देखने की लाचारी दिखाते हैं
राशन कार्ड गिरवी रखने वाले ज़्यादातर लोगों ने किसी अपने के इलाज के लिए ही राशन कार्ड गिरवी रखकर कर्ज़ लिया था।
मझेरा गांव में बनी डिस्पेंसरी बंद पड़ी है, लोगों का कहना है कि इलाज के लिए गांव से दूर जिला अस्पताल जाना पड़ता है जिसमें उनका काफी खर्चा हो जाता है, कई बार मरीजों को वहां से ग्वालियर रैफर कर दिया जाता है।
शिवपुरी में 4 लाख 39 हज़ार 200 सहरिया आदिवासी हैं, 2011 की जनगणना के अनुसार मात्र 52625 परिवारों को अंत्योदय राशन कार्ड दिए गए हैं। 
शिवपुरी के खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के मुताबिक़ इन अंत्योदय राशन कार्ड धारियों के लिए हर महीने एक लाख 80 हज़ार 395 क्विंटल गेंहू और तीन लाख 19 हज़ार 418 क्विंटल चावल शासकीय उचित मूल्य दुकानों राशन की दुकानों में पहुंचता है।
सहरिया क्रांति के संयोजक संजय बेचैन का कहना है कि इनमें से कऱीब 70 फीसदी राशन कार्ड गिरवी रखे हुए हैं, वो इसे इलाक़े में चल रहा बड़ा स्कैम बताते हैं।
संजय बेचैन कहते हैं कि देश में सबसे ज़्यादा सहरिया आदिवासी इसी इलाक़े में रहते हैं, अत्यंत भयानक गरीबी के कारण इन आदिवासियों के इर्द-गिर्द हर गांव में एक रैकेट सक्रिय हैं वो रैकेट उन्हें दीमक की तरह खाए जा रहा है, ये दबंगों, बाहुबलियों और साहूकारों का रैकेट है आदिवासियों की मजबूरी का फायदा उठाकर ये लोग उनका राशन कार्ड हड़प लेते हैं।
यहां के 90 फीसदी आदिवासी अशिक्षित हैं, जैसे अमीर महिला बुरे वक्त में अपने आभूषण गिरवी रखती है, ठीक वैसे ही यहां कि माएं अपने बच्चों के लिए राशन कार्ड गिरवी रखती हैं।
इन आदिवासियों के पास रोजग़ार का कोई पक्का साधन नहीं है, महिलाएँ जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर बेचती हैं और पुरुष खदानों में काम करते हैं, 
इन कामों में इन्हें दिन के 100-200 रुपए मिल जाते हैं लेकिन ये काम भी हफ़्ते में दो तीन दिन ही मिल पाता है।
जितने पैसे ये कमा पाते हैं, उसमें बाज़ार भाव का आटा-दाल लेना इनके लिए मुश्किल होता है और फिर दूसरी जरूरतों के लिए तो पैसा बचता ही नहीं है।
मोहम्मदपुर गांव की रहने वाली स्वरूपी ने भी अपने बच्चे के इलाज के लिए एक साल पहले राशन कार्ड गिरवी रखा थाण् वो कहती हैंए ष्डेढ़ सौ रुपए का पांच किलो आटा आता हैण् बच्चों को कैसे पालें, कई बार सुबह बनाने को होता है तो शाम को नहीं कई बार तो बच्चे रोते-रोते ख़ाली पेट ही सो जाते हैं।
खाद्य विभाग शिकायत के इंतज़ार में
सामाजिक कार्यकर्ता संजय बेचैन कहते हैं बीमारी और कुपोषण से जूझते हुए आदिवासियों के पास अपने राशन कार्ड तक सुरक्षित नहीं हैंए इससे ज़्यादा भयावह स्थिति क्या होगीण् सरकार की योजनाएं आदिवासियों के नाम से आती तो हैं लेकिन उन तक पहुंच नहीं पातीं।
जब हम शिवपुरी के खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के दफ्तर पहुंचे तो वहां सभी अधिकारियों ने इस मामले की जानकारी होने की बात मानी लेकिन उन्होंने कहा कि अभी विभाग शिकायत का इंतजार कर रहा है।
विभाग की कनिष्ठ आपूर्ति अधिकारी नेहा बंसल ने बीबीसी से कहा हमारे पास अब तक कोई शिकायत नहीं आई है शिकायत आने पर उचित क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी।
राशन कार्ड गिरवी रखने वाले शख्स असलम ने बताया कि उसके पास कई परिवारों के राशन कार्ड कई महीनों-सालों से गिरवी हैं और वो उनका राशन ख़ुद ले रहा ह, ऊपर से ली गई रकम पर ब्याज़ भी चढ़ाता जा रहा है।
जमना को राशन कार्ड के बदले तीन हज़ार रुपए मिले थे, डेढ साल में ब्याज़ लगाकर असलम अब पांच हज़ार रुपए मांग रहा है।
असलम की गांव में ही परचून की दुकान है उसने कहा कि मेरे पास कई लोगों के राशन कार्ड गिरवी रखे हैंण् लोगों ने जरूरत पडऩे पर राशन कार्ड गिरवी रखकर पैसा लिया, जब वो पैसा दे जाएंगे तो राशन कार्ड ले जाएंगे। असलम जैसे लोग यहां के लगभग हर गांव में हैं, जो राशन कार्ड गिरवी रखकर इन लोगों को कर्ज़ देते हैं।
शिवपुरी, आदिवासी, राशन कार्ड गिरवी लेकिन, सवाल ये भी उठता है कि किसी व्यक्ति के राशन कार्ड पर किसी दूसरे व्यक्ति को राशन कैसे दे दिया जाता है।
जब हमने कनिष्ठ आपूर्ति अधिकारी नेहा बंसल से पूछा कि क्या राशन कार्ड धारी की पहचान के बिना राशन दिया जा सकता है तो उन्होंने बताया हाल ही में देश में भूख से हुई मौतों के बाद हमें ये निर्देश दिए गए थे कि आधार ना होने या बॉयोमिट्रिक न लगने पर भी राशन नहीं रोका जा सकता।
इसी नियम का फायदा उठाकर राशन कार्ड गिरवी रखने वाले असली हकदार का राशन ख़ुद हड़प लेते हैं।
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जब कुपोषण से हुई थी मौतें
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पिछले कई सालों में शिवपुरी और पास के श्योपुर जिले में कई बच्चों की मौत कुपोषण की वजह से हुई थी, सरकार ने माना था कि इन इलाक़ों में कई हजार बच्चे कुपोषण के शिकार हैं
जब इलाके में बच्चों की मौत की सुर्खियों अखबार और टीवी पर छाईं तो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि हर आदिवासी परिवार के पोषित आहार के लिए हर महीने 1000 रुपए सीधे बैंक खाते में डाले जाएंगे।
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए लोगों के खातों में पैसे डाले भी जा रहे हैं लेकिन लोगों तक बैंक की पहुंच बनाने के लिए गांवों में लगाए गए प्राइवेट कियोस्क सेंटर से लोगों को चार-चार महीने में सिर्फ  एक दो बार ही पैसे मिल पाते हैं।
देश में खाद्य सुरक्षा कानून लागू है लेकिन शिवपुरी के इन गांवों की तस्वीर सरकार के आंकड़ों और दावों के बीच का खोखलापन दिखाती हैं। शिवपुरी की तस्वीर सिर्फ  लोगों के भोजन, राशन की समस्या को उजागर नहीं करतीं बल्कि भ्रष्टाचार, रोजगार की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं को भी कठघरे में खड़ा करती हैं।
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ऐसे होता है पूरा कारोबार
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सरकार राशन प्रदायगी के लिए बायोमैट्रिक वेरीफिकेशन की बात करती है मगर राशन कार्ड गिरबी रखने वाले दबंग इतने शातिर होते हैं कि वे राशन दुकान तक उसी गरीब आदिवासी को भेजते हैं जिसके नाम से राशनकार्ड जारी किया जाता है। वेरीफिकेशन के बाद जब आदिवासी अपने हिस्से का राशन लेकर दुकान से रवाना होता है उसे बीच रास्ते में ही रोककर दबंग लोग राशन और राशनकार्ड दोनों ही छीन ले जाते हैं। यह सच है कि राशन गाँव में दुकान तक पहुंचता है वहाँ से आदिवासी के हाथ में भी कुछ समय के लिए पहुंचता है मगर उसके पेट तक यह राशन कभी नहीं पहुंच पाता। 1 रुपए किलो गेहूं यहाँ मोटी तोंद वालों तक पहुंच जाता है और आदिवासी 25 रुपए किलो का आटा खरीदकर अपना पेट पाल रहे हैं।

Source : Agency

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Name: धीरज मिश्रा (संपादक)

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